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- Author, भवदीप कांग
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिन्दी के लिए
आस्था ही श्रद्धालुओं को पहले स्वयंभू 'भोले बाबा' के सत्संग तक लेकर आई और बाद में उनकी दुखद मौतों का कारण बनी.
श्रद्धालुओं के शव ज़मीन में रौंदे गए. महिलाओं और बच्चों समेत 123 लोगों के शव हाथरस के एक खेत में बिखरे पड़े थे. लेकिन आस्था में कोई कमी नहीं आई.
मंदिरों और धार्मिक आयोजनों में ऐसा बार-बार हो चुका है. सैकड़ों लोग भगदड़ में अपनी जान गंवा चुके हैं. भक्ति में सराबोर भावनाएं अक्सर श्रद्धालुओं को एक घबराई हुई भीड़ में बदल देती हैं और फिर उनके रास्ते में जो भी चीज़ आती है, वो नष्ट हो जाती है.
कुंभ मेला, वैष्णो देवी, नैना देवी, सबरीमला ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ कई श्रद्धालु अतिउत्साह की वजह से कुचले जा चुके हैं. लेकिन आस्था अपनी गति से आगे बढ़ती रही है.
कॉन्स्टेबल से स्वयंभू धार्मिक गुरु बने भोले बाबा उर्फ़ नारायण साकार हरि उर्फ़ सूरजपाल जाटव, ऐसे पहले धार्मिक गुरु नहीं हैं जो अपने अनुयायियों के प्रति लापरवाह हैं.
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पुलिस के मुताबिक़, बाबा के 'सत्संग' के आयोजकों ने कार्यक्रम में आने वालों की संख्या को कम करके बताया, जितने लोग बताए गए थे, उससे तीन गुना ज़्यादा लोग कार्यक्रम में शामिल होने आए थे.
भगदड़ के कारण जो बताए जा रहे हैं, उनमें दो बातें सामने आ रही हैं.
भगदड़ इसलिए मची क्योंकि आयोजकों ने भीड़ को खेत के रास्ते से जाने से रोक दिया या बाबा के निजी सुरक्षाकर्मियों ने लोगों को उनके रास्ते से हटाने के लिए धक्का दिया था.
भीड़ के लिए व्यवस्थित तरीक़े से आवागमन का प्रावधान नहीं था और भगदड़ में जो लोग घायल हुए, उन्हें तत्काल कोई मदद नहीं दी गई.
अब जो कुछ भी हुआ है, उसकी ज़िम्मेदारी बाबा नहीं ले रहे हैं. वो इस पूरे हादसे से ख़ुद को अलग कर चुके हैं और कहीं दिख भी नहीं रहे हैं.
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कुछ ऐसा दिख रहा है कि श्रद्धालुओं को अपने भाग्य का सामना करना पड़ा है और उन्हें उनके कर्मों का फल मिला है.
गुरु इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं. ये गुरु और उनके अनुयायियों के बीच के शक्ति संबंधों को भी दर्शाता है: गुरु आदेश देता है और भक्त इसका पालन करते हैं. भक्त सेवा करते हैं और गुरु उस सेवा को स्वीकार करते हैं.
ऐसे स्वयंभू बाबा अंधविश्वास चाहते हैं और अपने निजी स्वार्थ के लिए श्रद्धालुओं का फ़ायदा उठाते हैं. महिलाएं इस मामले में ख़ासकर असुरक्षित होती हैं.
ऐसे धार्मिक गुरुओं की लंबी सूची है, जिन पर महिला अनुयायियों ने यौन शोषण के आरोप लगाए हैं.
ऐसे बाबा जिन पर रेप के आरोप हैं, उनमें ख़ासतौर पर गुरमीत राम रहीम और आसाराम जैसों का नाम आता है.
ऐसे आरोपों के लिए कुख्यात नित्यानंद परमहंस फरार हैं. श्री रामचंद्रपुरा मठ के राघवेश्वर भारती के ख़िलाफ़ चार्ज़शीट तकनीकी आधार पर रद्द कर दी गई थी.
इन सब के बावजूद इन धार्मिक गुरुओं के अनुयायी इनके साथ बने हुए हैं. आस्था, अंधी नहीं होती है लेकिन वो वही देखती है जो वो देखना चाहती है.
आस्था का मतलब है कि गुरु हमेशा सही हैं, चाहे वो ग़लत ही क्यों न हों.
भक्तों का मानना होता है कि गुरु ग़लत काम कर ही नहीं सकते हैं. आस्था की अतार्किकता भक्त के इस तर्क पर आधारित है कि गुरु कभी ग़लत कर ही नहीं सकते, इसलिए वो जो भी करेंगे वो सही ही होना चाहिए.
एक बार गुरु की दिव्यता स्वीकार कर ली गई तो भक्त को इसे परिवार, दोस्तों और चाहने वालों से ऊपर रखना चाहिए.
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मौतों का ज़िम्मेदार कौन- गुरु या अनुयायी?
'लव चार्जर' गुरु राम रहीम ने साल 2017 में सरकार और न्यायपालिका को धमकाने के लिए अपने अनुयायियों की सेना का इस्तेमाल किया था. ये वो वक़्त था, जब राम रहीम को बलात्कार के आरोप में अदालत में लाया गया था.
लेकिन भक्तों को इन आरोपों की कोई परवाह नहीं थी. राम रहीम पर बलात्कार के अलावा हत्या का भी आरोप था, उन पर 400 अनुयायियों को नपुंसक बनाने की भी जांच चल रही थी.
लेकिन भक्तों के लिए गुरु, क़ानून से ऊपर थे. वो चाहते थे कि राम रहीम के चरित्र पर बिना किसी दाग़ के उन्हें रिहा कर दिया जाए.
जब अदालत में गुरु दोषी क़रार दिए गए तो रो पड़े और उनके आंसुओं की वजह से बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी, जिसमें 38 लोग मारे गए और सैकड़ों जख़्मी हुए.
आख़िर इन मौतों का ज़िम्मेदार कौन था- गुरु या अनुयायी?
राम रहीम की ही तरह हरियाणा के एक और स्वयंभू बाबा हैं, जगत गुरु रामपाल महाराज, जिन्होंने अपने भक्तों को इस्तेमाल किया.
रामपाल ने प्रशासन की नाक के नीचे अपने आश्रम में हथियार और गोला-बारूद जमा कर लिया था. साथ ही 'कमांडोज़' की एक निजी सेना भी बनाई थी.
जब अदालत ने रामपाल के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी किया, उस वक़्त पुलिस अनुयायियों से इतनी घबराई हुई थी कि गिरफ़्तारी के लिए अर्धसैनिक बलों की सहायता का अनुरोध किया था.
अनुयायियों और पुलिस के बीच हुई झड़प में चार महिलाओं की मौत हो गई थी. इन लोगों ने अपनी आस्था के नाम पर ख़ुद का 'समर्पित' कर दिया था.
आस्था का मतलब यहाँ ये है कि गुरु की नैतिकता सर्वश्रेष्ठ है. उस पर सवाल नहीं किए जा सकते.
इसलिए, गुरु पर चाहे बलात्कार, हत्या, अपहरण, बधियाकरण, ज़मीन हड़पने या वित्तीय लेनदेन से जुड़े आरोप ही क्यों ना हों, भक्त के लिए वो शुद्ध रहता है, भक्त अपने गुरु को साज़िशों के निर्दोष शिकार के तौर पर देखते हैं. ऐसे आरोप स्वयंभू बाबाओं पर लगते आए हैं.
गुरु की संपूर्णता में गुरु से ज़्यादा भक्त को भरोसा रखना पड़ता है. जिस गुरु में भक्त की आस्था है, अगर वो फ्रॉड निकला तो भक्त अपने आप फ्रॉड या मूर्ख कहा जाएगा. ऐसे में यहां पहचान का सवाल बन जाता है.
गुरु के अनुयायी अपने आप में एक समुदाय बन जाते हैं और इस समुदाय की सदस्यता उनकी पहचान का हिस्सा.
गुरु पर सवाल उठाना मतलब इस समुदाय से बहिष्कृत हो जाना है, ऐसे में वफादार बने रहना पड़ता है.
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आस्था और सियासत
ये आस्था न केवल गुरु के लिए बेहद उपयोगी होती है, साथ ही गुरु के सियासी दोस्तों के लिए भी ये महत्वपूर्ण होती है. इसे वोटों में तब्दील किया जा सकता है.
ज़्यादातर मुख्यधारा के गुरु राजनीति में शामिल होना पसंद नहीं करते हैं लेकिन राम रहीम जैसे कुछ धर्म गुरु हैं जो किसी न किसी पार्टी से जुड़े रहने के लिए जाने जाते हैं.
इससे गुरु की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है क्योंकि इससे उन्हें राजनीतिक सुरक्षा भी मिल जाती है. अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और चुनाव में उम्मीदवारों को टिकट दिलाने जैसी भी शक्ति मिल जाती है.
ज़ाहिर है कि धर्मगुरु और राजनेताओं का गठजोड़ सिर्फ़ वोटों के लिए नहीं होता है, क्योंकि राजनेता बेहद अंधविश्वासी होते हैं. वो ऊपर वाले को अपने पक्ष में करने के लिए गुरुओं की शक्ति पर भरोसा करते हैं.
सभी पार्टियों के नेता अपने पक्ष में नतीजे आने के लिए चुनाव से पहले सलाह, आशीर्वाद लेते और प्रार्थना-अनुष्ठान करते दिखते हैं.
उदाहरण के लिए, कुछ मीडिया आउटलेट्स ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की तस्वीरें प्रकाशित की हैं, जिसमें वो भोले बाबा के सत्संग में हिस्सा लेते दिख रहे हैं, साथ ही उनके एक्स पोस्ट को भी जगह दी गई है, जिसमें वो बाबा की तारीफ़ कर रहे हैं.
प्राचीन कथाओं में ऐसा बताया गया है कि भगवान जगन्नाथ की वार्षिक रथ यात्रा के दौरान भक्त मोक्ष पाने के लिए ख़ुद को रथ के पहिये के नीचे डाल देते थे.
इसके उलट, हाथरस में भगदड़ के दौरान जो महिलाएं और बच्चे मरे हैं, उन्होंने अपनी किस्मत नहीं चुनी थी. वो आशीर्वाद लेना और मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए वहां आए थे.
लेकिन वो आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता के शिकार बन गए.
इन सबके बावजूद आस्था अपनी गति से आगे बढ़ रही है.
(लेखिका भारतीय 'बाबाओं' पर 'स्टोरीज ऑफ़ इंडियाज़ लीडिंग बाबाज़' नाम की किताब लिख चुकी हैं.)
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